चोल साम्राज्य

चोल साम्राज्य एवं प्रशासन

चोल साम्राज्य का राजनीतिक उत्कर्ष 10 वीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ हुआ किंतु इसका प्रारंभिक इतिहास तीसरी शताब्दी में संगम युग से प्रारंभ होता है। चोल साम्राज्य की स्थापना 9वीं शताब्दी में विजयालय ने की थी जो पल्लवों का सामंत था। चोल साम्राज्य पेन्नार तथा कावेरी नदियों के बीच पूर्वी समुद्र तट पर स्थित था। विजयालय के पश्चात उसका पुत्र आदित्य प्रथम (887 - 907)  शासक बना। सिंहासनरोहण के समय भी आदित्य पल्लवों का सामंत था। आदित्य ने ही सर्वप्रथम चोलो को पूर्णता स्वतंत्र शक्ति के रूप में घोषित किया। इसने पल्लव को पराजित करने के उपलक्ष में "कोदंडराम " की उपाधि धारण की। 'राजराज चोल' तथा उसका पुत्र 'राजेंद्र प्रथम' चोल वंश के महानतम शासक रहे तत्कालीन समय में चोल साम्राज्य की नौसेना सबसे श्रेष्ठ थी। राजेंद्र प्रथम ने अरब सागर में स्थित 'सदिमंतीव द्वीप' पर अधिकार कर अपनी नौसेना की श्रेष्ठता साबित की।


चोल साम्राज्य


◆चोल प्रशासन


चोल प्रशासन के अंतर्गत केंद्रीय प्रशासन में राजा सर्वोच्च पद पर होता था। शासन राजतंत्रात्मक स्वरुप में था। उत्तराधिकार के लिए  ज्येष्ठता को वरीयता दी जाती थी तथा उपराजा के पद पर सदैव राजकुमारी आसीन होती थी। सरकारी पद वंशानुगत होते थे। नायक, सेनापति, महादंडनायक सेना के विशेष अधिकारी थे जिन्हें वेतन के रूप में जमीनें दी जाती थी। राजा के व्यक्तिगत अंगरक्षकों को "बेडैक्कार" कहा जाता था तथा मंत्रियों को "उडंकुट्टम" कहते थे।

◆संरचना

प्रशासन की सुविधा अनुसार चोल साम्राज्य 6 मंडलम(प्रान्तों) में विभक्त था। प्रत्येक मंडलम में राजपरिवार का व्यक्ति प्रशासन का कार्यभार संभालता था। मंडलम वलनाडु(जिला) में विभक्त थे, वलनाडु नाडु (गांव)में विभक्त थे तथा नाडु कुर्रम(कोट्टम) में विभक्त थे। दूसरे शब्दों में बात करें तो साम्राज्य की प्रशासनिक इकाइयां (अवरोही क्रम) इस प्रकार विभक्त थी-
राज्य-मंडलम-वलनाडु-नाडु-कुर्रम ।


◆आय का साधन

राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमि कर था। इसे ग्रामसभा द्वारा एकत्र किया जाता था। कृषि उपज का एक तिहाई भू-राजस्व निर्धारित किया जाता था। इसके अलावा सीमा शुल्क, राहदारी, उद्योग पर लगाए गए कर भी राज्य की आय के स्रोत थे। विवाह समारोह पर भी कर लगाया जाता था। चोल काल में सोने के सिक्कों को "काशु" कहा जाता था। भूमि  को मापने की इकाई "वेलि" कहलाती थी तथा राजस्व विभाग के प्रमुख अधिकारी को "वारितपोत्तराक्क" कहा जाता था।


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◆सैन्य व्यवस्था

चोल सेना के तीन प्रमुख अंग थे-
        1. पदति
        2.गजरोही
        3.अश्वारोही
सेना में सभी वर्णों के लोग सम्मिलित थे। सेनाध्यक्ष को 'महादंडनायक' कहा जाता था। थल सेना में धनुर्धर, गजरोही और घुड़सवार तथा पैदल सेना शामिल थी चोलो की नौसेना अपने आप में विशेष थी।

◆स्थानीय स्वशासन 

उत्तमेरुर अभिलेखों से चोल कालीन स्थानीय स्वशासन एवं ग्राम व्यवस्था का विस्तृत विवरण मिलता है। स्थानीय प्रशासन व्यवस्था समिति "वरियम" कहलाती थी। चोल काल में तीन प्रकार की ग्राम सभा थी।
     1.उर-साधारण लोगो की ग्राम सभा।
     2. महासभा- वरिष्ट ब्राह्मणों की सभा जिसे "अग्रहार" भी कहते थे।
    3.नगरम - व्यापारिक समुदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक  सभा। 

वरियम (कार्यकारिणी समिति) की सदस्यता के लिए कुछ योग्यताएं निर्धारित थी-

      1. आयु 35 से  70 के मध्य 
      2.कम से कम डेढ़ एकड़ भूमि का होना 
      3.स्वयं के मकान में रहता हो
      4. वैदिक मंत्रों का ज्ञाता हो


◆समाज

चोल काल में  समाज दो वर्गों में विभक्त था जिनमें ब्राह्मण तथा अब्राह्मण थे। अब्राह्मणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शूद्र थे। इस काल में दो औद्योगिक समूह भी थे दक्षिण वर्गीय(वलंगई) तथा वाम वर्गीय(इडंगई)। चोल साम्राज्य में क्षत्रिय व वैश्य वर्ग न थे। अछूत वर्गों को 'परैया' तथा शूद्र कृषको को 'वेल्लार'कहते थे। स्त्रियों की स्थिति उत्तर भारत से बेहतर थी किंतु देवदासी प्रथा तथा दासप्रथा प्रचलित थी।



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◆वास्तुकला

चोल कला द्रविड़ शैली के मंदिरों के निर्माण में शीर्ष पर पहुंच गई। राजराज चोल द्वारा निर्मित 'बृहदेश्वर मंदिर (तंजौर)' द्रविड़ शिल्प कला की सर्वोत्तम कृति माना जाता है। चोल काल में धातु मूर्तियों का निर्माण भी अधिकाधिक हुआ जिनमें अधिकांश कांस्य  मूर्तियां थी। सर्वाधिक सुंदर कांस्य मूर्ति  नटराज(शिव)की मूर्ति है।

         
                          ✍✍Penned By - Shobhit Awasthi

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